क्या आप जानते है क्या है ॐ

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ॐ यह कोई सुधार शब्द नहीं है और ना ही यह
कोई श्लोक है हाँ कुछ लोग इसे मंत्र अवश्य कहते हैं परंतु ये निराकार परमात्मा का निज नाम है। हम परमात्मा का जो भी नाम लेते हैं वो असल में उसके किसी विशेष गुण की व्याख्या करता है। जैसे कि जगदंबा का मतलब है कि जो जगत की अंबा यानि माता हैं। दुर्गा मतलब दुर्गति से पार लगाने वाली, ब्रह्मा यानि जिसका ज्ञान कोष सबसे वृहत हो, विष्णु का अर्थ है कि जो विश्व व्याप्त है, शिव मतलब जो कल्याणकारी है, रुद्र मतलब जो दुष्टों को रूलाने वाला हो आदि।

इस प्रकार आप देख सकते हैं कि परमात्मा के एक नाम से हम उसके किसी एक गुण का ही वर्णन कर के उसके उसी गुण से उसकी स्तुति करते हैं परंतु ॐ के साथ ऐसा नहीं है।

ये शब्द अ, उ और म वर्णों से मिल कर बना है। यहाँ ये तीनों वर्ण अकार, उकार व मकार के प्रतीक हैं। यानि परमात्मा के सभी नामों का संग्रह है। यानि अकेला ये अक्षर ही परमात्मा के सभी गुणों का वर्णन करने में सक्षम है इसी कारण प्रणवाक्षर है। अकेले इसी प्रणवाक्षर से ही परमात्मा की संपूर्ण स्तुति हो सकती है।

यानि जो विधर्मी हम पर बहुईश्वरवादी होने का आरोप लगाते हैं उनके लिए ये ॐ अकेला ही जीता जाता प्रमाण है।

इसके आध्यात्मिक लाभ वही हैं जो परमात्मा के संपूर्ण गुणों का बखान करने यानि सगुण उपासना करने का है। यहाँ ये विचार करने वाली बात है कि निराकार ॐ के लिए मैं सगुण उपासना क्यों लिख रहा हूँ?

सगुण का वास्तविक अर्थ साकार नहीं है बल्कि सगुण का अर्थ है जो गुणों से भरपूर है और उपासना का अर्थ पूजा या कर्मकांड नहीं बल्कि समीप बैठना है। जिस प्रकार अग्नि का गुण ताप व प्रकाश है और उसके उपासना करने यानि समीप बैठने से व्यक्ति को ताप व प्रकाश मिलता है वैसे ही परमात्मा की उपासना से परमात्मा के गुण मनुष्य में आते हैं। भौतिक गुण जैसे कि सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी व सर्वज्ञाता होना तो जीवात्मा में नहीं आ सकते परंतु उसके स्वाभाविक गुण जैसे कि दयावान होना, सत्व रज व तम से परे होना, हर परिस्थिति में एकजैसा रहना, न्यायकारी होना, धैर्यशाली व पराक्रमी होना आदि गुण मनुष्य में आते हैं जो मनुष्य को धार्मिक बनाते हैं।

अब धार्मिक बनने के क्या लाभ हैं तो वो रामचरितमानस के लंका कांड में भगवान राम बता रहे हैंः

सुनहु सखा, कह कृपानिधाना, जेहिं जय होई सो स्यन्दन आना।

श्री रामजी ने कहा- हे सखे! सुनो, जिससे जय होती है, वह रथ दूसरा ही है।

सौरज धीरज तेहि रथ चाका, सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका। बल बिबेक दम पर-हित घोरे, छमा कृपा समता रजु जोरे।

शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिए हैं। सत्य और शील (सदाचार) उसकी मजबूत ध्वजा और पताका हैं। बल, विवेक, दम (इंद्रियों का वश में होना) और परोपकार- ये चार उसके घोड़े हैं, जो क्षमा, दया और समता रूपी डोरी से रथ में जोड़े हुए हैं॥3॥

ईस भजनु सारथी सुजाना, बिरति चर्म संतोष कृपाना। दान परसु बुधि सक्ति प्रचण्डा, बर बिग्यान कठिन कोदंडा।

ईश्वर का भजन ही (उस रथ को चलाने वाला) चतुर सारथी है। वैराग्य ढाल है और संतोष तलवार है। दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है, श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है॥4॥

अमल अचल मन त्रोन सामना, सम जम नियम सिलीमुख नाना। कवच अभेद बिप्र-गुरुपूजा, एहि सम बिजय उपाय न दूजा।

निर्मल (पापरहित) और अचल (स्थिर) मन तरकस के समान है। शम (मन का वश में होना), (अहिंसादि) यम और (शौचादि) नियम- ये बहुत से बाण हैं। ब्राह्मणों अर्थात ज्ञानियों और गुरु का पूजन अभेद्य कवच है। इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है॥5॥

सखा धर्ममय अस रथ जाकें, जीतन कहँ न कतहूँ रिपु ताकें।

हे सखे! ऐसा धर्ममय रथ जिसके हो उसके लिए जीतने को कहीं शत्रु ही नहीं है॥6॥

महा अजय संसार रिपु, जीति सकइ सो बीर। जाकें अस रथ होई दृढ़, सुनहु सखा मति-धीर।।

हे धीरबुद्धि वाले सखा! सुनो, जिसके पास ऐसा दृढ़ रथ हो, वह वीर संसार (जन्म-मृत्यु) रूपी महान् दुर्जय शत्रु को भी जीत सकता है (रावण की तो बात ही क्या है)॥80 (क)॥

यानि ॐ की उपासना से प्राप्त होने वाले धर्म का ये प्रभाव है की उसपर चलने वाला व्यक्ति रावण जैसे अजेय शत्रु को भी जीत सकता है ।

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